दीपावली के 11 दिन बाद टिहरी गढ़वाल में मनाया जाता है इगास,बग्वाल
दिवाली के त्योहार के पुरे 11 दिन बाद टिहरी गढ़वाल में इगास दीपावली मनाई जाती है, जिसे गढ़वाली की भाषा में इगास बग्वाल कहा जाता है। इसमें दीयों और पटाखों की बजाय भैला खेला जाता है, इस दिन गढ़वाली लोगो के घरों में पूड़ी, स्वाले, उड़द की पकोड़ी बनाई जाती है जो की बहुत ही स्वादिष्ट होता है। अगर आप उत्तराखंड से है तो कमैंट्स कर के बातएं आज इगास बग्वाल के दिन आपके घर में क्या क्या बना है ?
रात को पूजन के बाद सभी लोग भैलो खेलते हैं। जो एक पारंपरिक रिवाज है। इगास बग्वाल के बारे में कई पौराणिक मान्यताएं और कहानियां हैं।
पौराणिक मान्यता है कि वनवास के बाद जब भगवान राम अयोध्या पहुंचे, तो लोगों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया और इसे दिवाली के त्योहार के रूप में मनाया, लेकिन कहा जाता है कि भगवान राम आने की खबर दिवाली के ग्यारह दिन बाद गढ़वाल में आई। और इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी का इजहार करते हुए ग्यारह दिनों के बाद दीपावली का त्यौहार मनाया।
टिहरी गढ़वाल की अपनी अलग संस्कृति और परंपराओं के साथ एक अलग पहचान है, लेकिन आधुनिकता के इस युग में धीरे-धीरे गायब हो रही संस्कृति और परंपराओं को बचाना हमारी नई पीढ़ी की जिम्मेदारी है, जो आधुनिकता के इस युग में धीरे-धीरे भूल जाती हैं।
क्या ऐसी स्थिति में, हमें अपनी संस्कृति और परंपराओं को बनाए रखने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि टिहरी गढ़वाल अपनी अलग पहचान बनाए रख सके।उत्तराखंड की संस्कृति एवं सभ्यता को बढ़ावा देने के लिए "Website" को सबस्क्राईब जरूर करें धन्यवाद
उत्तराखंड:आज इगास,दिवाली के दिन लक्ष्मी पूजन के साथ खेलेंगे भैलो,
डॉ। आचार्य सुशांत राज के अनुसार, पहाड़ में एकादशी को इगास कहा जाता है। इसलिए इसे इगास बग्वाल के नाम से जाना जाता है। जो विशेष रूप से जौनपुर, प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल आदि गढ़वाल के क्षेत्रों में मनाया जाता है।
अन्य मान्यताओं के अनुसार, गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दीपावली के समय तिब्बत में लड़ाई जीती थी और दिवाली के 11 वें दिन गढ़वाली सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली (इगास बग्वाल ) मनाई गई थी।
गढ़वाल में उत्साह के साथ आज लोग खेलेंगे भैलो
इगास बग्वाल के दिन भैंस खेलने की एक विशेष प्रथा है। इसे चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील है। वैसे इसको दली या छिल्ला कहा जाता है। उत्तराखंड में जहां चीड़ के जंगल नहीं हैं, वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ आदि से भैला भी बनाते हैं।
इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े रस्सी या जंगली बेलों से बंधे होते हैं। फिर वे इसे जलाते हैं और इसे घुमाते हैं। इगास बग्वाल के दिन इसे जला कर ही भैला खेलना कहा जाता है।उत्तराखंड की संस्कृति एवं सभ्यता को बढ़ावा देने के लिए "Website" को सबस्क्राईब जरूर करें धन्यवाद
एकादशी एंव इगास के साथ आज से मांगलिक कार्य शुरू
इगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी कहा जाता है । पौराणिक मान्यता के अनुसार क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिककार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को गवान विष्णु निंद्रा से जागे थे। सभी मांगलिक कार्य इस दिन से शुरू होते हैं।
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